अस्तित्व खोती बेतवा नदी

हर नदी की तरह बेतवा भी अपनी धारा खो रही है। उसका उदगम अतिक्रमण और अति निर्माण से ग्रस्त हो रहा है। उसके बहते पानी में उद्योगों का गंदा पानी, खेती में मिलता जा रहा कीटनाशक और रासायनिक खादों के अवशिष्ट, मानव आबादी के मल मूत्र के साथ ही प्लास्टिक कचरा, लोगों के द्वारा छोड़ी गई पूजन सामग्री उसे लगातार प्रदूषित और जहरीला बना रहे हैं। बेतवा सिर्फ अपने उद्गम पर ही पीने योग्य है। शेष अपने पूरे यात्रा पथ में वह लगातार जहरीली होती जाती है। एक कस्बा है गंज बसौदा, जिसकी नगरपालिका अध्यक्ष एक ऐसी महिला हैं जो बेतवा नदी को पैदल घूम चुकी हैं। उनके पति पर्यावरण के सच्चे प्रहरी थे। उनकी पंचायत ने निश्चित ही बेतवा के तट को साफ रखा है।

किसानों में जहरीले रसायनों के प्रति कोई समझ नहीं है और निश्चित ही उनके जीवन में उसका दुष्प्रभाव भी साफ दिखता है। स्कूलों में बच्चे नदी, प्रदूषण और निरंतर जहरीली होती खाद्य श्रृंखला के प्रति जानकर और मुखर थे। बेतवा के किनारे तमाम प्रभावशाली लोगों की फैक्ट्रियां लगी हैं जो नदी जल को प्रदूषित करती हैं। पत्थरों की खदानें हैं, जिनका प्रभाव हरियाली की कमी के रूप में दिखने लगा है। बाल मजदूर हैं और मजदूरों की बस्तियां भी, जिनके जीवन की क्या स्थिति होगी, यह समझना पड़ेगा।

बेतवा के बीचोबीच जेसीबी मशीन से रेत निकालने का कार्य किया जा रहा है। यह वैध है या अवैध यह तो पता नहीं लेकिन रेता के ढेर स्कूल परिसर में दिख रहे थे, जो दबंग और रसूखदार पार्टी होने का प्रमाण है। लोग नदी में शौच करते हैं, नहाते हैं। अपने जानवरों को नहलाते हैं और उसी नदी के तटों पर बोरिंग करके खुद पानी पीते हैं। बेतवा आम जन के लिए एक साधन है। वन विभाग आदिवासियों को जंगलों में जाने से रोकता है। जिसका प्रभाव यह है कि गांव के किनारे सभी पेड़ पौधे लोग काट चुके हैं। गेहूं, चने, मसूर की खेती का मौसम है। लोग जहां टहनी की जरूरत थी, वहां पूरा पेड़ ही काट लेते हैं। हरियाली वास्तव में बहुत कम होती जा रही है।

कुछ गांव बेहद जागरूक लगे। सबसे अधिक बड़े बूढ़े लोग जो कहते हैं कि रासायनिक खाद और कीटनाशक डालते हुए उनका कलेजा कांप जाता है। पर उत्पादन के लालच में वे ऐसा करते हैं। जमीनें भी जहर की आदी हो चुकी हैं। अब बिना खाद और रसायनों के पैदा भी नहीं होता। लोगों के अपने परम्परागत बीज गायब हो चुके हैं। सरकार और बहुराष्ट्रीय निगमों के बीजों पर पूरी खेती निर्भर हो चुकी है। जो खूब पानी पर ही फसल देती है। परंपरागत अनाज के प्रति अलगाव यहां भी है। जबकि यही अनाज शरीर को पूर्ण पोषण देते हैं। इनमें पानी कम लगता है और यह बिना रसायनिक खादों और कीटनाशकों के भी आसानी से पैदा हो जाते हैं।

बेतवा यात्रा के दौरान आम जन शामिल नहीं थे। चुनिंदा सामाजिक लोगों ने यह यात्रा की और स्थान स्थान पर लोगों, विद्यार्थियों समाज के सम्मानित लोगों के साथ संवाद किया। संभव है कि अगली यात्राओं में इस अनुभव से अधिक आमजन शामिल किए जा सकेंगे।

नदी, खेती, जंगल, हारी बीमारी के सभी सवाल आम लोगों के जीवन से जुड़े होते हैं। यदि अधिक से अधिक आमजन इससे जुड़ते, उनके जीवन की मुश्किलों को नदी के सूखने, प्रदूषित होने, बाढ़ आने से जोड़ा जाता तो निश्चित ही लोगों को नदी से जुड़े प्रश्नों पर अधिक जवाबदेह बनाया जाना संभव हो सकता है।

समाज के एक बड़े वर्ग के लिए यह आयोजन था जहां शामिल होकर वे अपने कर्तव्य की इतिश्री करते दिख रहे थे। लेकिन कम ही लोग ऐसे थे जिन्होंने भविष्य में बेतवा को अधिक साफ रखने, सदावाहिनी बनाने तथा अतिक्रमण से मुक्त रखने में कोई भूमिका लेने में रुचि दिखाई।

यात्री दल के संदेश बहुत साफ थे। चिंताएं भी स्पष्ट थी लेकिन यह एक शिक्षण की गतिविधि ही अधिक थी। संगठन, रचना और संघर्ष के बिंदुओं पर बहुत काम करने की जरूरत लगती है। मध्य भारत में नदी को लेकर यदि कोई मजबूत रचनात्मक पहल की जाती है तो उसका प्रभाव पूरे देश में फैलेगा लोग अपनी नदियों के प्रति जागरूक भी होंगे तथा उनके लिए काम भी करेंगे। यह विचार ही बेतवा नदी यात्रा के पहले चरण को सफल बनाता है।

कुछ चिंताएं जिनका जिक्र पहले भी आया है वह हैं बेतवा का अत्यधिक प्रदूषित होना। खेती किसानी में कीटनाशक, जहरीले रसायनों की भारी मात्रा और उसका नदी जल, भोजन में मिलकर पूरे खाद्य श्रृंखला को जहरीला बनाना। उद्योग समूहों का नदी को प्रदूषित करना। नगरों का प्रदूषण, घरों, मंदिरों, का कचरा नदी में मिलना। नदी जल का अत्यधिक दोहन। नदी जलागम को समृद्ध बनाने वाले प्रयासों का न होना। नदी में, उसके किनारों पर, जलागम पर खनन की गतिविधियां, नदी तट का निरंतर अतिक्रमण किया जाना। नदी जल को बढ़ाने के लिए जल संचय जैसी गतिविधियों में कोई कार्य नहीं किया जाना।

यहां बहुत मंदिर बने हैं। लेकिन कोई मंदिर नदी को लेकर संवेदनशील नहीं है। सब कुछ धार्मिक गतिविधि करते हैं और नदी को बर्बाद करते हैं। यह अजीब है।पर वास्तविकता है कि जो भीड़ मंदिरों में शामिल रहती है, उसके कारण भी नदी प्रदूषित होती है। बेतवा का अपना महात्म्य है। इतिहास है, भूगोल है संस्कृति है और मध्य प्रदेश के जन जीवन में बहुत बड़ी भूमिका भी है।

यह देखने से हम वंचित हैं कि मध्य प्रदेश के लोगों का बेतवा को बचाने शुद्ध रखने और जीवनदाई बनाए रखने में क्या भूमिका है। सीमेंट के ढेर से नदी कभी नहीं बच सकती है। नदी प्रकृति की अनुपम कृति है। जिसे पूरे परितंत्र को सहेजने से ही जीवित रखा जा सकता है।

बेतवा नदी अध्ययन और जागरूकता यात्रा के आयोजक श्री आर के पालीवाल जी और उनके साथ जुड़े तमाम जागरूक लोग वास्तव में प्रकृति के प्रति संवेदनशील हैं। उन्होंने बहुत अच्छी व्यवस्थाओं के साथ हमको नदी यात्रा में शामिल किया और देखने, सुनने समझने का अवसर दिया।

चूंकि हमने नदियों को लोक की दृष्टि से ही देखा है। यात्राएं की हैं और सभी कार्य आम जनों के साथ मिलकर की हैं। पर्वतीय नदियों की तुलना में बेतवा एक बड़ी नदी है।समाज भी बड़ा है। इसलिए यह अनुभव हमारे लिए नया और बहुत कुछ सिखाने वाला रहा। निश्चित ही हमारा जमीनी अनुभव यहां भी अधिक जन भागीदारी की अपेक्षा कर रहा है।

आशा है भविष्य में बेतवा नदी को साफ रखने और सदा वाहिनी बनाए रखने के लिए और अधिक जमीनी कार्य किए जायेंगे।

सभी को बधाई, सभी के प्रति आभार।। जय नंदा जय हिमाल